Commentary

Find our newspaper columns, blogs, and other commentary pieces in this section. Our research focuses on Advanced Biology, High-Tech Geopolitics, Strategic Studies, Indo-Pacific Studies & Economic Policy

Economic Policy Shrikrishna Upadhyaya Economic Policy Shrikrishna Upadhyaya

Mint | Swish expressways must go with public education on using them

By Nitin Pai

On 19 June, Navroze Contractor was riding back home as usual with his motorcycle group on a service road of Hosur Road (National Highway 44). The 80-year old fellow Bangalorean was a highly regarded filmmaker, photographer, music maven and motorcycle enthusiast. A champion of road safety, he was killed when three drunken motorcyclists riding at high speed on the wrong side of the road crashed into him. The staggering irony compounds the tragedy of lives lost as a result of wrongdoings that are, paradoxically, both avoidable and normalized. Erosion of norms is the fastest way to anarchy. Road safety in India will get worse unless they are addressed now. Read the full article here.

Read More
Advanced Biology Nitin Pai Advanced Biology Nitin Pai

सोशल सिक्योरिटी को एक नए सिरे से सोचने का समय आ गया है

An edited version of this article appeared first on The Print Hindiअगले कुछ दिनों में कोविड-१९ के फैलाव को जल्द से जल्द रोकना केंद्र और राज्य सरकारों का प्राथमिक उद्देश्य रहेगा | साथ ही साथ यह भी बेहद ज़रूरी होगा कि लॉकडाउन से क्षतिग्रस्त ग़रीब लोगों के जीवन को फिर से संवारा जाए | अच्छी ख़बर यह है कि जनधन-आधार-मोबाइल की त्रिमूर्ति के रूप में भारत के पास एक ऐसा प्रभावशाली औज़ार है जिससे ज़रूरतमंद लोगों तक तेज़ी से सहायता पहुँचाई जा सकती है |इस महामारी से भारतीय अर्थव्यवस्था को इतनी बड़ी क्षति पहुँचेगी कि उसकी भरपाई सिर्फ सरकार नहीं कर पाएगी | मसलन, मोदी सरकार ने फुर्ती से १.७ लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा तो कर दी लेकिन सही माइनों में ज़रुरत है कई गुना बड़े पैकेज की - कम से कम पाँच प्रतिशत जीडीपी के करीब की | मतलब अगर आप सरकार के स्वास्थ्य, रक्षा, और मनरेगा पर सालाना खर्च को जोड़ कर एक राहत पैकेज बनाए तो वह भी अपर्याप्त होगा |अगर सरकार ऐच्छिक खर्च मसलन राष्ट्रीय राजधानी की रीमॉडलिंग को टाल भी दे, फिर भी उसके लिए 10 लाख करोड़ से ज़्यादा की रकम जुटाना मुश्किल होगा| करों में वृद्धि या सेस (cess) बढ़ाने से लेने के देने पड़ जाएँगे क्योंकि ऐसे साधनों से अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करना और भी मुश्किल हो जाता है |साधन १: पीएम-केयर फंडपीएम केअर के नामकरण को लेकर बेवजह का विवाद खड़ा किया जा रहा है | ठंडे दिमाग से सोचें तो ऐसे कोष नए नहीं हैं| राज्यों में मुख्यमंत्री राहत कोष हो या पीएम-केअर फंड, सरकार द्वारा प्रशासित यह राहत कोष उस जमाने की देन है जब हमारे पास ऐसी तकनीक नहीं थी कि हम ज़रूरतमंद की सटीक पहचान कर उन तक सहायता पहुंचा पाते|जैसा कि अर्थशास्त्री अजय शाह लिखते है, भारत में एक रुपये के सरकारी खर्च के लिए उसे समाज से तीन रुपए लेने पड़ते है | यह भारत की प्रशासनिक हालात को दर्शाता है | इस संख्या का मतलब यह कि पीएम/सीएम राहत कोश लोगों को राहत राशि पहुंचाने का सबसे बेहतरीन तरीका तो नहीं है | इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हमें इन कोषों की ज़रूरत ही नहीं | कुछ ऐसे क्षेत्र है जहां सरकार का खर्च किया गया एक रूपया समाज को तीन रुपये से ज़्यादा का फ़ायदा पहुँचा सकता है | उदाहरण के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य, टीकाकरण, आपातकालीन खाद्य प्रावधान, सार्वजनिक आश्रय कुछ ऐसे खर्च है, जिनके प्रावधान से सरकार समाज से लिए हुए पैसों को सूद समेत वापस कर देती है |इसके आलावा दूरदराज़ के स्थानों में या आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों में सरकार शायद एकमात्र एजेंसी है जो आर्थिक संरचना में निवेश कर सकती है | इसलिए इस तरह के कोष काम में आ सकते है, खासकर आज के हालात में | अच्छा होगा अगर व्यवसाय, दान-संस्थाएं, और आम नागरिक सब मिलकर इस पूँजी में अपना योगदान कर पाएँ |साधन २: २१वीं सदी का सोशल सिक्योरिटी अकाउंटइस पारम्परिक तरीक़े के अलावा, अब एक और ज़रिया है जिससे समाज के सभी हिस्से ज़रूरतमंदों तक सीधे पहुँच सकते है| मोदी सरकार को जल्द ही एक नागरिक-से-नागरिक हस्तांतरण योजना शुरू करनी चाहिए जिसके तहत कम्पनियाँ, दान-संस्थाएं, और आम नागरिक सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में पैसा डाल पाए |  देखा जाए तो हम यह काम अनौपचारिक रूप से करते ही हैं जब हम अपने घर में काम करने वालों और पड़ोसियों को कुछ अतिरिक्त पैसा देते हैं |  लेकिन जनधन-आधार-मोबाईल और यूपीआई की मदद से यह हस्तांतरण बहुत बड़े पैमाने पर किया जा सकता है |ज़रा सोचिए: एक ऐसा मल्टी-कंट्रीब्यूशन सिस्टम जिसमें किसी भी ज़रूरतमंद के जनधन अकाउंट को कई योगदान के स्त्रोत से टॉप-अप किया जा सके | एक ऐसा सामाजिक सुरक्षा खाता जिसमें राज्य सरकारें केंद्र के योगदान को टॉप-अप कर सकती हैं, या फिर सीएसआर (CSR) फंड्स निजी योगदान को टॉप-अप कर सकते है, या फिर एक एनजीओ (NGO) संस्था किसी आम नागरिक के योगदान को टॉप-अप कर सकती है | इन स्त्रोतों से इकट्ठा की गयी राशि आपके एक  जान-पहचान वाले व्यक्ति के जन-धन खाते में यूपीआई से सीधे डाली जा सकती है, या एक अज्ञात व्यक्ति के खाते में, जिसे आप जनसांख्यिकीय मानदंडों (आयु, स्थान, आय) के आधार पर परिभाषित कर सकते हैं | साथ ही इस हस्तांतरण के बदले में आपको टैक्स कटौती का लाभ भी मिल सकता है | यह सही मायनों में २१वी सदी की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली होगी |  सामाजिक रूप से हस्तांतरित इस रूपये की समाजिक लागत 3 रुपए से कम होगी जो कि एक सरकारी चैनल के माध्यम से किए जाने वाले ट्रांस्फर से होती |  इस टेक्नोलॉजी से ज़रूरतमंदों की बेहतर पहचान कर सकते हैं बजाय किसी अनजान सरकारी कर्मचारी की उदारता पर निर्भर होने के | वैसे तो ये एक मूल ढाँचा है और इसका दुरुपयोग न हो, उसके लिए कुछ संशोधन ज़रूर करने होंगे | टैक्स कटौती की सीमा तय की जा सकती है और एक निश्चित सीमा से ऊपर के डोनेशन को सेवानिवृत्ति / स्वास्थ्य सेवा खातों में डाला जा सकता है| मानदंड-आधारित दान स्कीम भी शुरू की जा सकती है | मुझे यकीन है कि ऐसे सौ तरीकें है जिनसे इस तरह की व्यवस्था का दुरुपयोग किया जा सकता है लेकिन इसे हमें इन कारणों को एक बेहतर सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की ओर अग्रसर होने में रूकावट नहीं बनने देना चाहिए |वास्तव में, समाज को खुद की मदद करने के लिए सक्षम बनाना भारतीय परंपरा का एक अटूट अंग रहा है |  राजनीतिक सिद्धांतकार पार्थ चटर्जी रवींद्रनाथ टैगोर के इन्हीं तर्ज पर विचार को कुछ इस तरह से पेश करते हैं: “भारत में अंग्रेजों के आने से पहले, समाज अपनी पहल से लोगों की जरूरतों को को पूरा करता था | वह जरूरी कार्यों के लिए राज्य की ओर नहीं देखा करता था| राजा युद्ध या शिकार करने जाते थे, कुछ राजा राजकार्य छोड़ अपने आनंद और मनोरंजन में ही व्यस्त रहते थे और रियासतों को उसके हाल पर छोड़ देते थे | ऐसे समय में भी समाज में कष्ट भुगतने की बजाय कर्तव्यों को अलग-अलग व्यक्तियों के बीच में ही आवंटित कर दिया जाता था| जिस व्यवस्था से यह सारा काम किया जाता था उसे धर्म कहा जाता था|”कोरोनोवायरस महामारी से बनी परिस्तिथि ने एक आवश्यकता को वह अब एक अनिवार्यता में बदल दिया है | मोदी सरकार को अपने ही विचारों को तार्किक निष्कर्ष की ओर ले जाना चाहिए: सामाजिक सुरक्षा को वास्तव में सामाजिक बनाना बनाकर| कोरोनोवायरस और लॉकडाउन से प्रभावितों को राहत देना इस नई सोच के लिए एक शुभ शुरुआत होगी|(Translated by Pranay Kotasthane)

Read More
Nitin Pai Nitin Pai

Modi govt’s blanket ban on plastics at this moment of economic slowdown is a bad idea

Modi’s de-plasticisation campaign seeks to end the use of single-use plastics by 2022. It is unclear if anyone in the government has done economic and environmental cost-benefit analyses of a nationwide ban on single-use plastics. If India’s proposed ban on single-use plastics is successful, the benefit is that we will reduce plastic pollution, but at the cost of worsening the cumulative environmental impact.Read more

Read More
Economic Policy Pranay Kotasthane Economic Policy Pranay Kotasthane

Equity sans reservations: Imagining alternate ways for affirmative action

Affirmative action aimed at ending discrimination has a long and complex history in India. A new chapter was added to this story on May 10 when the Supreme Court upheld a Karnataka law, saying quotas for promotion of scheduled caste and scheduled tribe candidates in public employment was constitutional and did not require demonstrating ‘backwardness’ of the community.Even groups opposed to quotas want the same benefit extended to them. For long, this has been the only solution to address inequity in India. So these recent developments provide a good opportunity to reflect on the question: can we imagine better ways to achieve social equity goals?Consider this thought experiment. There are no predetermined quotas for any posts. Positions are filled only based on a composite score of all applicants. The composite score is a combination of two measures. The first is an inequity score — calculated to compensate for the relative disadvantage faced by an applicant.The second measure strictly represents an applicant’s ability to be effective for the position they are applying for. Selection is on the basis of the composite score. No seats are reserved and yet the score allows for addressing multidimensional inequity much better than current methods.Read the full article on FirstPost here

Read More